Friday, October 13, 2017

बचपन !!


सोचो भी तो वो दिन याद नहीं आते,
जब किसी चीज की परवाह न होती थी!
बाहर के काम के लिए पापा और
रसोई के लिए माँ जो होती थी!!

एक जादुई सफर !

१० जून २०११, शुक्रवार, सुबह ८:३०, ऑफिस का समय १० बजे. १ घंटे में बेग लगाना है ऑफिस के लिए भी और साथ में सफ़र के लिए भी, हर चीज याद से रखना ज़रूरी था, लम्बा रास्ता और वो भी बस से जाना था, आखिरी रात नींद की पकड़ ज्यादा थी सोना ज़रूरी था, सो जो भी करना था सुबह ही करना था. 

बेग लगते लगते टाइम देखा तो ९:३० हो चुका था. अब सोचने वाली बात ये थी की जिस लोकल में एक पतला सा बेग लेके सफ़र करना भी मुश्किल होता है आज ये बड़ा बेग कहाँ रखूँगा इसको साथ रखना मतलब एक और जन की जगह ले लेना जो साथ में सफ़र करने वालों को कतई स्वीकार नहीं होता है बंबई में. पैर कोई और चारा तो था नहीं सो निकल पड़ा, जैसे तैसे चढ़ा तो देखा अन्दर जाने की तो जगह मुमकिन ही नहीं है, सो गेट पे खड़े होना ही मुनासिब समझा, अब पीठ पे बेग जो की बहार लटका हुआ हे ट्रेन के और साथ में मुझे भी खींच रहा है, और साथ में बारिश का प्रकोप भी बरप रहा था, तो बेग भी रो रहा था और साथ में खरे जी भी.

हाथ टूट गया ट्रेन का गेट पकड़े पकड़े, एक पैर भी लड़खड़ाने लगा था जिसपे मेरा पूरा वज़न लाद रखा था मैंने. चलो कोई नहीं पहुँच गया इसी हालत में ऑफिस, लोगों ने देखा तो समझ गए की आज पक्का ये कहीं आउट ऑफ़ स्टेशन निकलेगा इतना बड़ा बेग ऑफिस में लाने का और क्या परपज़ होगा किसी का. सभी की नज़रों को दरकिनार करते हुए अपनी सीट पे बैठा. ए.सी. में भी पसीना निकले तो क्या कहने, पोंछ पोंछ के खरे जी परेशान.

घड़ी देखते देखते उस दिन काम किया मैंने शाम ४ बजे तक. अब पता तो था नहीं की बस मिलेगी कहाँ से, जो पता था वो ये की ठाणे बोर्डिंग पॉइंट है. साब किसी से पुछा ऑफिस में तो पता चला ४० मिनिट लगते हैं ऑफिस से ठाणे, बस का टाइम ७:४५ सोचा अगर ७ बजे भी निकलूंगा तो भी पहुँच जाऊंगा टाइम पे, सो काम करते करते बज गए ६:३०, टेंशन ज्यादा हुई तो उठाया बेग बॉस को बताया और निकल लिया.

अब दिमाग में चले तो बस यही बात की टाइम पे पहुँच भी पाउँगा या नहीं जब की निर्धारित समय से ३० मिनिट पहले ही निकल लिया था. पैर ये क्या  ठाणे की ट्रेन मिली ७:१० पे, ट्रेन में लोगों से पुछा की भाई कितना टाइम लगता है ठाणे तक का, सुन ने को मिला ४० मीन्स, हवाइयां उड़ गयी माथे पे पसीना टपटप गिरे जाये. पसीना पोंछु एक हाथ से भरी सा बेग पकड़ा एक हाथ से. टेन्शनियाते हुए और ऑफिस के लोगों को कोसते हुए पहुंचा ठाणे ७:३० पर.

ख़ुशी की लहर दौड़ गयी की चलो अब तो बस मिल ही जाएगी, पर लोकल स्टेशन और बस स्टॉप के बीच फासला है करीब १५ मिनिट का सोचा वो भी तय कर लेंगे, पर ये क्या ऑटो रिक्शा के लिए एक लम्बी लाइन लगी हुई देखी, झरने सा पसीना बहना शुरू हुआ, देखा करीब करीब ५०० लोगों की लाइन, सब को कोसना शुरू "सभी को यही वक़्त मिला जाने के लिए, थोडा आगे पीछे नहीं हो सकता था क्या टाइम?" पर कोई फायेदा नहीं देखा तो टाइम वहीँ ७:४५ हो चुका था, भगवान भला करे उस ऑटो वाले का, जिसको देख के मैंने रेलिंग तोड़ दी और जिसने मुझसे जहाँ ८ रुपये लगते हैं ८० रुपये लिए बस स्टॉप तक पहुँचाने के.

रास्ता पतला सा उसपे चलते तितर बितर लोग, किसी को भी सुध नहीं जाना कहाँ है, पर मुझे तो पता है, कोई हटाओ इन्हें रास्ते से, कोई तो रास्ते को चौड़ा करो ताकि ऑटो और तेज चल सके और  मैं बस पकड़ सकूँ. उधर ऑटो वाला अपनी पूरी कोशिश कर रहा है, ३ मिनिट का रेड सिग्नल, और हर सेकंड में टूटती मेरी उम्मीद. मेरा ढाढस  बंधाने वाला ऑटो वाला चढ़ा हुआ एक्सेलरेटर पे, यहाँ से वहां से काटता हुआ आखिर पहुंचा ही दिया मुझे ८:०० बजे बस स्टॉप पर, ५ मिनिट की जगह ८ मिनिट में ही सही.

अब बस एजेंसी का एड्रेस ढूडना था, फिर क्या भागा यहाँ से वहां, पान वाले से पुछा.. नहीं पता साब, ऑटो वाले से पुछा तो रोड के दुसरे साइड पर है, हाईवे पर तेज गति से भागती हुई बस ट्रक का ख्याल ना करते हुए रोड क्रोस करना मतलब प्राणों को फुटबाल समझ के उछालना, पर किया मैंने ये, जन्नत की सैर जो करना थी. पर बताई हुई एजेंसी तो कोई और सर्विस की थी. उसी जगह एक भाईसाब से पुछा तो उन्होंने एड्रेस दिया की दो बिल्डिंग छोड़ के है, भागा वहाँ !


सड़क पर देखा तो एक बस रखी हुई थी उसी एजेंसी की, लगा दी फिर से दौड़, ड्राईवर से पुछा तो वो बोला ये बस वो नहीं वो तो पीछे वाली है, पीछे वाली पे चढ़ गया ड्राईवर से पुछा तो सुन ने को मिला की ये बस वो नहीं, आगे वाली बस में गया ड्राईवर को बताया ड्राईवर झल्लाया, मुझको चमकाया, मायूस मैं नीचे उतर आया. उसी जगह एक भाईसाब से एजेंसी का पता पुछा तो उन्होंने एड्रेस दिया की दो बिल्डिंग छोड़ के है, भागा वहाँ, वक़्त 8:१५.


दिल तो बैठ गया था ये सोचके की अब क्या बस तो निकल ही गयी होगी, पर दिल की सारी भड़ास निकाली एजेंसी में बैठी हुई अधेड़ उम्र की महिला पर, उसको पता था कैसे निबटा जाये ऐसे लोगों से सो उसने बस एक ही सवाल किया. बस कितने बजे वाली थी मैंने जवाब में कहा ७:४५, नियति का खेल देखिये साब, वो बोली बारिश की वजह से बस देर से आ रही है सो अभी निकली नहीं है और १५ मिनिट बाद आएगी, हे भगवान् कहाँ सर फोड़ता. उसको धन्यवाद् देके स्टॉप पे जा खड़ा हुआ पसीना पोंछते हुए.


ठीक २० मिनिट बाद बस के दर्शन हुए. ऐसा लग रहा था मानो जैसे घंटों इंतज़ार करने के बाद दुल्हन स्टेज पे आई हो. पर शुक्र है कि आ गयी. कंडक्टर से टिकिट चेक कराया और जा बैठा ऊपर अपनी सीट पे.

Thursday, October 12, 2017

जीने के बहाने!!

हो कितनी भी निराशा या खोया हो विश्वास,
चलता चल कि जीने के बहाने मिलेंगे ज़रूर||
सूना हो कितना भी मन का आँगन आज पर कल,
कहानी भी बनेंगी और अफ़साने मिलेंगे ज़रूर||
घिरे हो कितना भी तन्हाइयों में पर याद रखना,
कभी अपने तो कभी अनजाने मिलेंगे ज़रूर||,
थक के हार मत मान लेना न रुक जाना तुम कहीं,
कभी मंजिलें तो कभी सुकून के सिरहाने मिलेंगे ज़रूर||

~ वैभव

Thursday, November 22, 2012

ओस की बूंदें !!


सोती हुई ओस की बूंदों को जगाया है तुमने,
इस अजनबी दुनिया से रूबरू कराया है तुमने,
अहसानमंद रहेंगे हम तेरी इस मेहरबानी के लिए
अंधेरों में इक उगते सूरज को दिखाया है तुमने.... वैभव

Thursday, August 30, 2012

प्रबल मनोबल


हो अगर मनोबल प्रबल तो क्या रोकेगा हमे ये आसमाँ //

अगर निश्चय हो दृढ़ तो लौ को भी न बुझा सकेगा कितना ही बड़ा हो तूफ़ान।।

Monday, May 30, 2011

God please bless some humanity to humans.

The incidence was really heart shaking one, but over that the reactions and actions taken by CPRF were pathetic. shame on them.
The below post has been written by my eldest brother, touched the deepest chord of my heart, couldn't stop myself to post it here as well so that it could reach to few more people. Please go through it once..
God please bless some humanity to humans.

Just to give some relief I want to state that government of India has taken a step towards the Humanity, now helpers to any victim of such incidences need not to fill any formality before getting them direct to the hospital to get all needed first aids done.

Sunday, December 19, 2010

Do Not Leave!

जब जब उठते हैं जाने को तेरे ये कदम,
तब तब ठहरने लगता है दिल हमारा मरने से होने लगते हैं हम
अभी तो तेरे आने का घर में जशन था
तेरा चेहरा निहारने में दिल मगन था
जाने का कह के यूँ करो न दिल पे मेरे सितम
रोशनी के लिए चिराग जलाया ही था
इत्र से कमरे को बस महकाया ही था
अंधेरों से भरे इस जीवन में मेरे सूरज की किरण हो तुम

सोचता हूँ रोक लूँ तुम्हे बनाके कोई बहाना
जीत लूँ दिल गाके कोई हसीन तराना
हर ख़ुशी की वजह हो तुम मेरी, तुम हो तो हँसते हैं मेरे सारे गम ..वैभव